NRC/CAB: आखिर क्यों छिड़ा है रार नागरिकता संशोधन बिल पर

कोमल सुलतानिया
नागरिकता संशोधन बिल (CAB) 2019 राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद अब एक कानून बन गया है।राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के इस बिल पर दस्तखत के बाद ये कानून तो बन गया लेकिनसंसद से सड़क तक नागरिकता संशोधन विधेयकको लेकर कोहराम मच गया। लोगों का उग्र विरोध प्रदर्शन राजधानी दिल्ली सहित पूर्वोत्तर राज्यों सहित कई शहरों में देखा गया। दिल्ली स्थित जामिया विश्वविद्यालय, यूपी में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में छात्रों ने विधेयक का पुरजोर हिंसक विरोध किया।सरकार को एहतियातन देश के कई शहरों में इंटरनेट सेवाओं को बंद करना पड़ा।ब्।ठ के कानून बन जाने के बाद पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से अवैध तरीके से आए हिन्दू, सिख, ईसाई, पारसी, जैन और बौद्ध धर्म को लोगों को आसानी से भारतीय नागरिकता मिल जाएगी।
नागरिकता संशोधन बिल 2019 में केंद्र सरकार के प्रस्तावित संशोधन से बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए हिंदुओं के साथ ही सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाइयों के लिए अवैध दस्तावेजों के बाद भी भारतीय नागरिकता हासिल करने का रास्ता साफ हो जाएगा। नागरिकता संशोधन बिल का पूर्वोत्तर के राज्य विरोध कर रहे हैं।पूर्वोत्तर के लोग इस बिल को राज्यों की सांस्कृतिक, भाषाई और पारंपरिक विरासत से खिलवाड़ बता रहे हैं। विधेयक का विरोध भारत के मुसलमानों के साथ-साथ पूर्वोत्तर राज्यों असम, त्रिपुरा, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम और अरुणाचल के हिंदुओं ने भी किया। वहीं बीते कुछ चुनावों में मंदिर-मंदिर जाकर कांग्रेस ने जैसे-तैसे करके अपने माथे पर सजा मुसलमान समर्थक होने का मुकुट उतारा ही था कि नागरिकता संशोधन विधेयक के बहाने बीजेपी ने बहुत बवाल खड़ा करके उसे फिर से मुस्लिमपरस्त होने का ताज पहना दिया।
एनडीए सरकार के चुनावी वादों में से यह एक है। आम चुनावों के ठीक पहले यह विधेयक अपनी शुरुआती अवस्था में जनवरी 2019 में पास हुआ था। इसमें छह गैर मुस्लिम समुदार्यों हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाइयों के लिए भारतीय नागरिकता मांगी गई। इसमें नागरिकता के लिए बारह साल भारत में निवास करने की आवश्यक शर्त को कम करके सात साल किया गया। यदि नागरिकता चाहने वाले के पास कोई वैध दस्तावेज नहीं है तो भीइस विधेयक को संयुक्त संसदीय कमेटी के पास भेजा गया था, हालांकि यह बिल पास नहीं हो सका क्योंकि यह राज्यसभा में गिर गया था।
नागरिकता संशोधन कानून को लेकर कई राज्यों में बवाल भी मच गया। उनको सिर्फ इसका नकारात्मक पहलू ही दिखाया गया जबकि इस कानून के कई सकारात्मक पहलू भी है। सहज रूप से अप्रवासी का अर्थ उन लोगों से है, जो इन छह समूहों या समुदायों में से हो। इन समूहों के अतिरिक्त इन देशों से आने वाले लोग किसी भी तरह से नागरिकता के पात्र नहीं होंगे। यह विधेयक प्राकृतिक रूप से नागरिकता के प्रावधान में भी छूट देता हैसाथ ही विधेयक तीन देशों के छह समुदायों के लोगों को 11 साल भारत में रहने की अवधि में भी छूट देता है। विधेयक में इसे घटाकर पांच साल किया गया है।
1947 में भारत और पाकिस्तान के धार्मिक आधार पर विभाजन का तर्क देते हुए सरकार ने कहा कि अविभाजित भारत में रहने वाले लाखों लोग भिन्न मतों को मानते हुए 1947 से पाकिस्तान और बांग्लादेश में रह रहे थे। विधेयक में कहा गया है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान का संविधान उन्हें विशिष्ट धार्मिक राज्य बनाता है। परिणामस्वरूप, इन देशों में हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी, जैन और ईसाई समुदायों के बहुत से लोग धार्मिक आधार पर उत्पीड़न झेलते हैं।इनमें से बहुत से लोग रोजमर्रा के जीवन में उत्पीड़न से डरते हैं। जहां उनका अपनी धार्मिक पद्धति, उसके पालन और आस्था रखना बाधित और वर्जित है। इनमें से बहुत से लोग भारत में शरण के लिए भाग आए और वे अब यहीं रहना चाहते हैं। यद्यपि उनके यात्रा दस्तावेजों की समय सीमा समाप्त हो चुकी है या वे अपूर्ण हैं अथवा उनके पास दस्तावेज नहीं हैं।यह विधेयक पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई अप्रवासियों को शामिल करता है। नागरिकता कानून 1955 के अनुसार, एक अवैध अप्रवासी नागरिक को भारत की नागरिकता नहीं मिल सकती है। अवैध अप्रवासी का अर्थ उस व्यक्ति से है जो भारत में या तो वैध दस्तावेजों के बिना दाखिल हुआ है अथवा निर्धारित समय से अधिक भारत में रह रहा है। सरकार ने 2015 में इन तीन देशों के गैर मुस्लिम शरणार्थियों को भारत में आने देने के लिए पासपोर्ट और विदेशी एक्ट में संशोधन किया था। यदि उनके पास वैध दस्तावेज नहीं हैं तो भी वह भारत में आ सकते है।नागरिकता संशोधन कानून 2019 संसद के दोनों से सदनों से पारित होने के बाद राष्ट्रपति के मुहर के बाद कानून बना। यह भारत में अवैध रूप से बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को नागरिकता का प्रस्ताव करता है।
प्रमुख विपक्षी दलों का कहना है कि विधेयक देश के करीब 15 फीसदी मुसलमानों के साथ भेदभाव करता है, जिन्हें इसमें शामिल नहीं किया गया है, हालांकि सरकार ने कहा है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान मुस्लिम राष्ट्र हैं। वहां पर मुस्लिम बहुसंख्यक हैं, ऐसे में उन्हें उत्पीड़न का शिकार अल्पसंख्यक नहीं माना जा सकता है। उन्होंने आश्वासन दिया है कि सरकार दूसरे समुदायों की प्रार्थना पत्रों पर अलग-अलग मामले में गौर करेगी।यह विधेयक संविधान के अनुच्छेद – 14 यानी समानता के अधिकार का उल्लंघन है। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और माकपा सहित अन्य कुछ प्रमुख राजनीतिक दल विधेयक का मुखर विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि नागरिकता धर्म के आधार पर नहीं होनी चाहिए। देश के उत्तर पूर्वी राज्यों असम, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा, मिजोरम, नगालैंड और सिक्किम में विधेयक के खिलाफ व्यापक पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए लोग महसूस करते हैं कि अवैध प्रवासियों के स्थायी रूप से बसने के बाद स्थानीय लोगों की मुश्किलें बढ़ जाएंगीसाथ ही आगामी समय में संसाधनों पर बोझ बढ़ेगा और पहले से यहां रह रहे लोगों के लिए रोजगार के अवसरों में कमी आएगी।लोगों का एक बड़ा वर्ग और संगठन विधेयक का विरोध इसलिए भी कर रहे हैं कि यह 1985 के असम समझौते को रद कर देगा। असम समझौते के अनुसार, 24 मार्च 1971 के बाद असम में आए लोगों की पहचान कर बाहर निकाला जाए। अब नागरिकता संशोधन विधेयक में नई सीमा 2019 तय की गई है। अवैध प्रवासियों के निर्वासन की समय सीमा बढ़ाने से लोग नाराज हैं।
संसदीय समिति के अनुसार, दूसरे देशों के रहने वाले इन अल्पसंख्यक समुदायों के 31 हजार 313 लोग लंबी अवधि के वीसा पर रह रहे हैं। यह लोग धार्मिक उत्पीड़न के आधार पर शरण मांग रहे हैं। इंटेलीजेंस ब्यूरो के रिकॉर्ड के अनुसार, इन 31 हजार 313 लोगों में 25 हजार 447 हिंदू, 5 हजार 807 सिख, 55 ईसाई, 2 बौद्ध और 2 पारसी शामिल हैं।
संसद से सड़क तक नागरिकता संशोधन विधेयक, 2019 को लेकर कोहराम मचा हुआ है। गैर-भाजपा शासित राज्यों में इस कानून पर विरोध के सुर और मुखर हो गए हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि विरोध के पीछे का सच क्या है? क्या इस कानून ने देश के संविधान का अतिक्रमण किया है? आखिर राज्यों के विरोध का औचित्यय क्या है। क्या उनका विरोध संवैधानिक है? क्या सच में केंद्र सरकार ने संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण किया है? इन सभी गंभीर सवालों पर संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप का कहना है कि हमारे देश की प्रणाली अमेरिका से इतर है। अमेरिका में दोहरी नागरिकता का कॉन्सेंप्टन है, लेकिन भारत में एकल नागरिकता का सिद्धांत है। यानि अमेरिका में एक संघीय नागरिकता है और दूसरी राज्योंर की नागरिकता। इसे आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि अगर कोई अमेरिका का निवासी है, तो वह वहां के लिए एक राज्य का भी अलग से नागरिक होगा। भारत की स्थिति इससे एकदम भिन्न है। यहां एकल नागरिकता का सिद्धांत लागू होता है। यह राज्यों का विषय क्षेत्र नहीं है। राज्यों सरकारों को इस पर कानून बनाने का कोई अधिकार नहीं है। इसलिए इस पर उनका विरोध भी असंवैधानिक है। संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप का कहना है कि संविधान का अनुच्छेवद 11 संसद को यह अधिकार देता है कि ससंद नागरिकता पर कानून बना सके। इस प्रावधान के अनुसार, संसद के पास यह अधिकार है कि वह नागरिकता को रेगुलेट कर सकती है। यानी संसद को यह अधिकार है कि वह नागरिकता की पात्रता तय करे। सर्वोच्च सदन को यह अधिकार है कि वह तय करे कि किसको नागरिकता मिलेगी और कब मिलेगी। कोई विदेशी किन परस्थितियों में देश की नागरिकता हासिल कर सकता है। इन सारी बातों पर कानून बनाने का हक सिर्फ संसद को है। इस लिए राज्यस सरकारों का विरोध उचित नहीं है। यह संवैधानिक नहीं है। राज्यों का यह विरोध केवल राजनीतिक स्वार्थ के लिए ही है।
सुभाष कश्यप का कहना है कि नागरिकता के मसले पर संविधान मौन नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 5 में बाकायदा नागरिकता के बारे में विस्तार से उल्लेख किया गया है। इसके तहत यह बताया गया है, भारत का नागरिक कौन होगा। इसमें यह प्रावधान है कि अगर कोई व्यक्ति भारत में जन्मा हो या जिसके माता-पिता में से कोई भारत में जन्मा हो। अगर कोई व्याक्ति संविधान लागू होने से पहले कम से कम पांच वर्षों तक भारत में रहा हो या तो भारत का नागरिक हो, वही देश का मूल नागरिक होगा। सुभाष कश्येप का कहना है कि इस कानून के खिलाफ विपक्ष अनुच्छेदद 14 को आधार बनाकर अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है। अनुच्छेकद 14 के तहत भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता या विधियों के समान सरंक्षण से वंचित नहीं किया जाएगा। यह अधिकार देश के नागरिकों के साथ नियम लोगों पर भी लागू होता है। सरकार के पास भी अपने कानून के पक्ष में पर्याप्तन और शक्तिशाली तर्क है। केंद्र सरकार नागरिकता के तर्कसंगत वर्गी करण के आधार पर इसे जायज ठहरा सकती है। सरकार यह हवाला दे सकती है कि देश में गैर कानूनी ढंग से रह रहे लोगों के लिए यह कानून जरूरी है। इसकी आड़ में कई अवांछित तत्वन भी देश में शरण ले सकते हैं। आदि-आदि। विपक्ष इस कानून के विरोध में संविधान के अनुच्छेद 10 और 14 की दुहाई दे रहा है। संविधान का अनुच्छे द 10 नागरिकता का अधिकार देता है। अब सवाल उठता है कि क्यां इस कानून से लोगों की नागरिकता को खतरा उत्पन्न हो गया है? लेकिन इस कानून में नागरिकता खत्म किए जाने की बात नहीं है। इस नए कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जो कहता है कि अगर आप आज नागरिक हैं तो कल से नागरिक नहीं माने जाएंगे। नया नागरिकता संशोधन बिल सीधे तौर पर इस अनुच्छेद 10 का उल्लंघन नहीं करता है।
इस बिल का जिक्र पाकिस्तान में भी हो रहा है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान इसके खलिाफ बयान दिया है पाकिस्तानी मीडिया में इसके बारे में खूब चर्चा हुई। पाकिस्तान के प्रमुख अखबार जंग की विधेयक के पास होने के बाद हेडलाइन्स थी कि, छह राज्यों दिल्ली, मध्य प्रदेश, पंजाब, केरल, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल” में मुस्लिम विरोधी कानून को अपने राज्य में मानने से इनकार कर दिया है। ये विधेयक कानून तो बन गया लेकिन विधेयक के विरोध में कई शहरों में लोग सड़कों पर उतर आए। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग का कहना है कि सीएबी भेदभाव पूर्ण है और इसलिए सरकार को इस कानून पर पुनर्विचार करना चाहिए। वहीं, अमरीकी विदेश विभाग के एक प्रवक्ता ने कहा है कि भारत को अपने लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों का ध्यान रखते हुए इस बात को सुनिश्चित करना चाहिए कि धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकार बरकरार रहें। अखबार नवा-ए-वक्त के अनुसार पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने कहा कि भारत को पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों की हालत पर लेक्चर देना शोभा नहीं देता। प्रवक्ता के अनुसार सारी दुनिया इस कानून को मुसलमान विरोधी मान रही है और भारत आज अल्पसंख्यकों के कत्ल का प्रतीक बन गया है।
समान नागरिकता विधेयक के जरिए बीजेपी ने बहुत शातिर से कांग्रेस को ऐसा घेरे में लिया कि देश भर में आज फिर से कांग्रेस मुसलमान समर्थक पार्टी के रूप में हिंदुओं के सामने आ खड़ी हुई है। कहां तो कांग्रेस धीरे-धीरे इस छवि से निजात पाने को प्रयासरत थी कि फिर से वह उसी छवि में कैद कर दी गई है। पहले तीन तलाक, एनआरसी, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने, कश्मीर विभाजन और अब नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध करते करते बीजेपी उसे राजनीति के उस मंच पर खींच लाई, जहां सिर्फ और सिर्फ यही लगता है कि कांग्रेस हिंदुओं के समर्थन में पता नहीं कितनी है, लेकिन मुसलमानों की पक्की समर्थक है। बीते कुछ दिनों से देश, समाज और संसद में जो कुछ हुआ और हो रहा है, उसके हिसाब से राजनीतिक तस्वीर के तेवर साफ है। बीजेपी अपने आप को हिंदु समाज की हितैषी होने का जो संदेश देना चाहती थी वह तो प्रसारित हो ही गया। लेकिन इसके साथ ही इससे बड़ा जो संदेश देश की जनता में गया, कांग्रेस चाहे कितना भी हिंदूवादी होने का स्वांग करती रहे, अंततः वह मुसलिम परस्त पार्टी ही है। दरअसल, मोदी सरकार को देश को सिर्फ यह संदेश देना था कि वह मुसलमानों को घुसपैठिया मानती है। वह उनकी विरोधी है और इस देश में उनको नागरिकता नहीं देने वाली है। इसीलिए तो इस कानून में सिर्फ पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसे मुसलिम बहुल देशों से धार्मिक उत्पीड़न का शिकार होकर आने वाले वहां के अल्पसंख्यक शरणार्थियों को ही नागरिकता देने का प्रावधान किया गया।
इस प्रसंग का दूसरा प्रभावी पहलू यह भी है कि पूर्वोत्तर राज्यों में रहने वाले मूल निवासियों को डर है कि नए नागरिकता कानून का फायदा उठाकर बांग्लादेश के बंगाली हिंदू उनके शहरों और गांवों में छा जाएंगे। वे पाकिस्तान और अफगानिस्तान के हिंदू और सिखों की तरह सैकड़ों और हजारों में नहीं आएंगे, बल्कि वे अब तक हजारों और लाखों में आ चुके हैं और आते जा रहे हैं। वे कई जिलों में बहुमत में हो गए हैं। कुछ वर्षों में इन प्रदेशों के मूल निवासी अल्पमत में हो जाएंगे। उनके मन पर इस बात का कोई खास प्रभाव दिखाई नहीं पड़ रहा है कि इस नए नागरिकता विधेयक में पड़ोसी देशों के मुसलमानों को शरण देने की बात नहीं कही गई है। इस विधेयक ने पूर्वोत्तर में तूफान खड़ा कर दिया।
जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं, वहां भी शहरों और गांवों में हजारों लोग सड़कों पर उतर आए भीड़ लूटपाट और तोड़-फोड़ से भी बाज नहीं आई। हजारों फौजी तैनात किए गए। कई शहरों में कर्फ्यू भी लगा। हवाई अड्डे और रेलवे स्टेशन ठप हो गए। 34 साल बाद इतना बड़ा आंदोलन असम में फिर उठ खड़ा हुआ। विधेयक के उग्र विरोध के चलते प्रधानमंत्री मोदी का जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे से गुवाहाटी में मिलने का कार्यक्रम भी रद्द हो गया। विधेयक ने एक तरफ पूर्वोत्तर के हिंदुओं को नाराज कर दिया और दूसरी तरफ तमिलों को भी। श्रीलंका से जो तमिल मुसलमान और हिंदू भारत में शरण लेना चाहते हैं, यह विधेयक उनके बारे में भी चुप है। इस विधेयक से भारत के मुसलमानों को कोई सीधा नुकसान नहीं है, लेकिन बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के मुसलमानों पर शक की छाप लगा देने का असर क्या हमारे मुसलमानों पर नहीं पड़ेगा? इसके अलावा इन मुस्लिम देशों से जो गैर-मुसलमान भारत में आकर जमना चाहते हैं, क्या वे सब सताए हुए ही होते हैं?
क्या हमारी सरकार को यह पता है कि इन मुस्लिम देशों से बाहर जाकर बसनेवालों में मुसलमान ही सबसे ज्यादा हैं? वहां से हिंदू, सिख और ईसाई भी बाहर निकले हैं, लेकिन जिनके पांवों में दम था, वे अमेरिका, यूरोप और सुदूर एशिया में जा बसे हैं। इस विधेयक के द्वारा भारत को अनाथालय क्यों बनाना चाहते हैं? किसी को भी भारत की नागरिकता चाहिए तो उसका पैमाना धर्म, जाति या वर्ग नहीं, बल्कि उसके गुण, कर्म और स्वभाव होना चाहिए।

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